दिवास्वप्न
ये तृष्णा की नदी तो गहरी होती जा रही है।
कही ये डूबा ना ले जाए मुझे!
कही हाथ पैर मारता ना रह जाऊँ..।
यहाँ कोई नाविक दिखाई नहीं दे रहा..!
परंतु यह बाह्य दृष्टि तो क्या ही सहायता करेगी!
और यह डूबने का भय अंतर्दृष्टि नहीं खुलने देगी।
मध्य में ठहर जाऊँ...?
क्या इस नदी में आते वेग को सह पाऊँगा ?
इतनी शक्ति इस देह में कहाँ ?
यह शक्ति भी तो एक नहीं! आसुरी और दैवीय है।
कौनसी शक्ति किस अनुपात में होगी मुझमें ?
कही आसुरी अधिक हुई..! मेरा शुभ नाश कर जायेगी!
कोई मध्य मार्ग निकालूँ या भूल जाऊँ ?
यूँ प्रश्नों के जाल में फँसने वाले
जिज्ञासु कहाँ बच पाये हैं।
भूल ही जा दिवास्वप्न मानकर!
हाँ,भूलना पड़ेगा..!
ये पेट भूखा जो है!
कभी-कभी तो आसान लगता है,
सब त्याग देना कर्तव्य निर्वहन के आगे..।
बहुत ख़ूब मास्टर जी।
जवाब देंहटाएं(सोमदत्त)
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